अनुत्तरित

आज फिर
फेर दी नाव
कि नहीं जाना
उस पार।
लहरों से खेलने का आनंद
भला उस पार कहाँ?
किनारे की रेत
औ’रुकी नाव में
भला गति का प्रवाह कहाँ?
यात्रा का रोमांच कहाँ?
चलते जाने की धुन कहाँ?
ज़िन्दगी कहाँ?
आज फिर फेर दी नाव
कि बहुत प्यारे हैं
बीहड़ वन-उपवन।
बीहड़ की
अनगढ़ प्रकृति का सौंदर्य
भला उस पार कहाँ?
लताओं में उलझती
पवन का राग
भला उस पार कहाँ?
कहाँ वहाँ वन-तुलसा से महकता अंचल?
कहाँ वहाँ बतियाते फूल?
इठलाती धूप?
कुछ भी तो नहीं वहाँ
जो यहाँ है।
लेकिन यहाँ हर तिनके में
झलकता है
वह पारदर्शी भी
जो अकेला वहाँ है।
सच, आज फिर फेर दी नाव
कि सब सुख चैन यहाँ है
फिर उस पार कौन जाने
जाना कहाँ है?