ओ रे पेड़

ओ रे पेड़!
कैसे बना तू इतना बड़ा?
कि तेरी शाखाएँ चूमती हैं आकाश,
तेरी पत्तियाँ ले पाती हैं
खुली हवा में साँस।
ओ रे पेड़!
कहाँ से बटोरी तूने
इतनी शक्ति,
इतनी आस्था
कि धूल भरे औ’बर्फ़ीले तूफ़ानों के बीच भी
तू रहता है डटा।
तूफ़ानी हवाओं के
कठोर प्रहार से
जब चरमराकर गिर पड़ती हैं
तेरी सभी डालियाँ,
तू बन जाता है एक ठूँठ
फिर भी नहीं त्यागता जिजीविषा,
नहीं होता हताश
कि फिर होता है हरा-भरा,
फूटती हैं नयी कोंपलें,
लहरा उठती हैं नयी शाखाएँ।
ओ रे पेड़!
कहाँ से पायी तूने इतनी उदारता?
कि खोल कर अपनी बाँहें
समेट लेता है-
ओसकण,
हिमकण,
वर्षा-बिंदु।
अपनी शाख़ों पर बनाता है
पंछियों की क्रीड़ास्थली,
उनके डैनों से आहत होकर भी
उफ़ नहीं करता,
उन्हें देता है आसरा।
ओ रे पेड़!
कहाँ से पायी तूने इतनी शिवता?
कि हलाहल पीकर भी उगल सके अमृत,
कुल्हाड़ियों की चोटों पर भी
बरसा सके फूल,
दे सके फल,
दे सके जीवन,
स्वस्थ पर्यावरण।
ओ रे पेड़!
कहाँ से पाया तूने इतना संतुलन,
बाहर-भीतर में अद्भुत ताल-मेल।
तू नित्यप्रति स्वयं को शोधता है,
नयी दिशाएँ तलाश करता है,
अवचेतन में गहरे उतर कर
तेरी जड़ें
खोज ही लाती हैं जीवन-रस।
तू किसी की प्रतीक्षा नहीं करता,
किसी की बाट नहीं जोहता।
तू आत्मनिर्भर,
स्वयं में परिपूर्ण तू,
तू आत्मान्वेषी,
तू मूल्यधर्मी,
तू ही शिव,
तू ही शक्ति,
तू प्रकृति का सबसे बड़ा सच,
तू ही मेरा गुरु।
आज तेरे ही चरणों में समर्पित
मेरी सभी आस्थाएँ,
सारे विश्वास
कि मुझमें भी
कुल्हाड़ी की चोट पर
मुस्कुराने की ताक़त भर दे ।
पिरो दे मुझमें भी
वह मूल्यधर्मिता,
वह आस्था तेरी।
हे मेरे गुरु!
मैं शिष्य हूँ तेरी
तुझे शत-शत नमन!
बस मुझे तू अपनी-सी
जीने की कला सिखादे!
बस मुझे तू अपनी-सी
जीने की कला सिखा दे!!!

ललक नई ज़िन्दगी की

मन हर दिन
नयी ज़िन्दगी
जीने को ललकता है।
जब वसंत में
फूटती हैं नयी कोंपलें,
सजते हैं नए पत्ते,फूल
तो जी चाहता है कि मैं
पेड़ हो जाऊँ।
जब देश मनाता है वसंत।
वासंती हवाओं के साथ
लहराते हैं पीले फूल
तो जी चाहता है कि
मैं वसंत हो जाऊँ।
और
जब देश मनाता है ,
कोई राष्ट्रीय पर्व।
हर इमारत पर
हवा के साथ
अठखेलियां करता है तिरंगा,
तो जी चाहता है कि
मैं देश हो जाऊँ,
शीश पर सजा कर तिरंगा
हवाओं के साथ इठलाऊँ।
सरसों से सजे खेत
जब मन को लुभाते हैं,
फ़िज़ाएं गुनगुनाती हैं-
प्रीत की कविता
तो सोचती हूँ धरा हो जाऊँ
या कि हो जाऊँ सृष्टि,
सबमें समा जाऊँ,
या सब को आत्मसात कर लूँ।
मैं ही पेड़ ,मैं ही खेत,
मैं ही देश,
मैं ही वसंत और
मैं ही सम्पूर्ण सृष्टि ।
अब निश्शेष हों
सभी चाहतें।
सब मुझमें और
मैं सब में!!!
हाँ, मैं सब में!!!

जीवन भी वसंत हो जाएँगे

बंद आँखों से
देखती हूँ सपने,
खुली आँखों से पूरे करती हूँ।
बंद आँखों से
देखती हूँ ऊँचाइयाँ,
खुली आँखों से
नाप लिया करती हूँ।
बंद आँखों से ही देखा
वो सुनहरा कल
जो तेरा,मेरा,
इसका,उसका,
सबका है,पर
जब उसे खींच कर
वर्तमान में लाना चाहा
तो बहुत छोटे पड़ गए
मेरे अहसास,
बहुत कमजोर साबित हुए
मेरे हाथ और
बहुत बेमानी हो गए
सारे प्रयास।
हाँफने लगी हूँ,
पसीने में तरबतर हूँ,
थक भी चली हूँ।
खुद से सवाल करती हूँ,
जवाब मांगती हूँ ।
तभी
कहीं भीतर से जैसे
बोलता है कोई कि
हाथों में हाथ थाम कर
आगे बढ़ो
कि
सुनहरा कल
खुदबखुद चला आयेगा घर।
तब उजास में
नहाएगी धरती और
रोशन होगी
हर गली,हर सड़क
सारे शहर,
देश,सभी द्वीप।
तमन्नाएँ हथेलियों पर सजेंगी
और सपने ज़मीन पर लहरायेंगे।
तब ज़ुबाँ बस गुनगुनाएगी गीत,
होंठ केवल मुस्कुराएँगे।
तब बागों और वनों में
न बंध कर रहेगा वसंत,
जीवन भी वसंत हो जाएंगे!!!
सच, जीवन भी वसंत हो जाएंगे!!!

बहुत याद आता है

बहुत याद आता है-
आँगन का वो ख़ूबसूरत हरसिंगार
जो हर सुबह
मेरे आँचल को
भर देता था,
उन मखमली, केसरिया डंडी वाले
ख़ुशनुमा फूलों से,
जिनकी मादक गंध
मेरे तन-मन में बस कर
मुझे एक नयी दुनिया में ले जाती थी।
मन उल्लास से थिरकता था,
मुझे अपनी दुनिया
एक सपने की तरह लगती थी,
और वक़्त जैसे पंख लगा कर
उड़ जाता था।
बहुत पीड़ा थी,
उसकी आँखों में-
जब वो इस आँगन से विदा हुआ।
मन मेरा भी ज़ार-ज़ार रोया
पर मैं विवश थी,
उसे विदा करने के लिये।
उसके बदन की
हरेक चोट मैंने झेली, सही,
आँखों की नमी को उससे छिपाया।
वो गुज़रता रहा
मैं देखती रही।
आज भी वो पेड़, उसके फूल,
उन फूलों की खुशबू
मेरे मन को महकाती है,और
हर बार मुझे खींच कर
उस हरसिंगार की छाया में
ले जाकर खड़ा कर देती है –
जहाँ बस मीठी यादें हैं,
और हैं उन यादों में पलते
महकते सपने
जो कहीँ समय की चट्टान के नीचे
दफ़न हो गये !!!