विश्व पर्यावरण दिवस

विश्व पर्यावरण दिवस,एक मज़ाक सा लगने लगा है।हम एक दिन प्रकृति का महिमा-मंडन कर उसके प्रति अपने दायित्व की इतिश्री समझ लेते हैं जबकि ‘प्रकृति’ शब्द का मूल अर्थ ही है स्वाभाविक,नैसर्गिक अर्थात सृष्टि में जो जिस रूप में हमें मिला है,उसे वैसा ही रहने दिया जाए।नैसर्गिकता प्रकृति का मूलभूत गुण है किन्तु हम अपनी भौतिकवादी दृष्टि के कारण उसके मूल स्वरूप को ही नष्ट कर रहे हैं।शोध हो रहे हैं, हमें लगातार प्रकृति के स्वरूप में आ रहे परिवर्तनों की भी जानकारी मिल रही है पर उस जानकारी को पाकर हम प्रकृति की सुरक्षा के लिए अपने सुविधाभोगी जीवन में कोई परिवर्तन नहीं कर रहे।फिर इस पर्यावरण दिवस का औचित्य क्या है? नदियाँ चीख़ रही हैं, ग्लेशियर आँसू बहा रहे हैं,हवा को तो ख़ुद जैसे वेंटीलेटर की ज़रूरत होने लगी है, धरती कुपोषण का शिकार है,समुद्र गर्जना कर अपने उद्धार के लिए पुकार रहे हैं वृक्षों, पशु-पक्षियों की पीड़ा तो अकथनीय है, फिर भी हमारे सुविधाभोगी कानों में ये चीखें हलचल नहीं पैदा करतीं।आज हम घरों में कैद हैं, हमारे आनंद-उल्लास के क्षणों पर पानी फिर गया है, प्रकृति नाराज़ है।अब भी अगर हम उसे अपने आप से,अपनी संवेदना से अलग- थलग ही रखेंगे तो ये तय है कि महामारियाँ हमारे जीवन का हिस्सा होंगी,हमारी ज़िंदगी कीड़े-मकोड़ों जैसी होगी।अब भी समय है जागिये।खुद को प्रकृति के निकट ले जाइए,उसे अपने जीवन का अभिन्न अंग बनाइये।फिर गर्व से उल्लास के साथ विश्व पर्यावरण दिवस मनाइये।प्रकृति को भी अब उत्सव मनाने का अवसर मिलना चाहिए वरना उसकी एक क्रुद्ध दृष्टि ही हमारी ज़िंदगी में कहर बरपाने के लिए काफी है। अब समय आ गया है प्रकृति को उसी उन्मुक्तता के साथ वह सब लौटाने का,जो हम शताब्दियों से उससे लेते तो रहे पर देने के वक़्त मुट्ठी बंद कर बैठ गए। अगर सचमुच पर्यावरण से प्रेम है तो प्रकृति के निकट जाने का, उसेअपने जीवन का हिस्सा बनाने का संकल्प करने का समय आ गया है।तो क्यों न इस संकल्प के साथ मनाएँ आज पर्यावरण दिवस।
प्रकृति को श्रद्धापूर्वक नमन करते हुए एक पुरानी कविता शेयर कर रही हूँ। सोचियेगा ज़रूर एक बात कि प्रकृति हमारे लिए कितनी अहम् है सच कहूँ तो प्रकृति ही जीवन है।

ओ रे पेड़

ओ रे पेड़!
कैसे बना तू इतना बड़ा?
कि तेरी शाखाएँ चूमती हैं आकाश,
तेरी पत्तियाँ ले पाती हैं
खुली हवा में साँस।
ओ रे पेड़!
कहाँ से बटोरी तूने
इतनी शक्ति,
इतनी आस्था
कि धूल भरे औ’बर्फ़ीले तूफ़ानों के बीच भी
तू रहता है डटा।
तूफ़ानी हवाओं के
कठोर प्रहार से
जब चरमराकर गिर पड़ती हैं
तेरी सभी डालियाँ,
तू बन जाता है एक ठूँठ
फिर भी नहीं त्यागता जिजीविषा,
नहीं होता हताश
कि फिर होता है हरा-भरा,
फूटती हैं नयी कोंपलें,
लहरा उठती हैं नयी शाखाएँ।
ओ रे पेड़!
कहाँ से पायी तूने इतनी उदारता?
कि खोल कर अपनी बाँहें
समेट लेता है-
ओसकण,
हिमकण,
वर्षा-बिंदु।
अपनी शाख़ों पर बनाता है
पंछियों की क्रीड़ास्थली,
उनके डैनों से आहत होकर भी
उफ़ नहीं करता,
उन्हें देता है आसरा।
ओ रे पेड़!
कहाँ से पायी तूने इतनी शिवता?
कि हलाहल पीकर भी उगल सके अमृत,
कुल्हाड़ियों की चोटों पर भी
बरसा सके फूल,
दे सके फल,
दे सके जीवन,
स्वस्थ पर्यावरण।
ओ रे पेड़!
कहाँ से पाया तूने इतना संतुलन,
बाहर-भीतर में अद्भुत ताल-मेल।
तू नित्यप्रति स्वयं को शोधता है,
नयी दिशाएँ तलाश करता है,
अवचेतन में गहरे उतर कर
तेरी जड़ें
खोज ही लाती हैं जीवन-रस।
तू किसी की प्रतीक्षा नहीं करता,
किसी की बाट नहीं जोहता।
तू आत्मनिर्भर,
स्वयं में परिपूर्ण तू,
तू आत्मान्वेषी,
तू मूल्यधर्मी,
तू ही शिव,
तू ही शक्ति,
तू प्रकृति का सबसे बड़ा सच,
तू ही मेरा गुरु।
आज तेरे ही चरणों में समर्पित
मेरी सभी आस्थाएँ,
सारे विश्वास
कि मुझमें भी
कुल्हाड़ी की चोट पर
मुस्कुराने की ताक़त भर दे ।
पिरो दे मुझमें भी
वह मूल्यधर्मिता,
वह आस्था तेरी।
हे मेरे गुरु!
मैं शिष्य हूँ तेरी
तुझे शत-शत नमन!
बस मुझे तू अपनी-सी
जीने की कला सिखादे!
बस मुझे तू अपनी-सी
जीने की कला सिखा दे!!!

प्रकृति को हमारी जिस संवेदना की ज़रूरत है,इस कविता में उसे अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है मैंने। कविता का शीर्षक है-
फिर खिल उठा अमलतास

कहीं कुछ भी खास नहीं था

मेरी गली के नुक्कड़ पर खड़े
अमलतास के
उस पुराने-से दरख़्त में
कि जिसकी ज़मीन पर
खुली-पसरी जड़ें
हर पल,हर घड़ी
न जाने कितनी सदियों की
दास्तान सुनाती थीं।
पर वक़्त किसके पास था
कि उसकी ज़बानी
उसकी कहानी सुनता,
कि उस कहानी में छिपे
उस सदियों पुराने इतिहास को गुनता,
जो न कभी सुना गया,
न कभी लिखा गया,
और न कभी पढ़ा ही गया।
उस रोज़
गली के नुक्कड़ से गुजरते हुए
उस दरख़्त ने
मुझे ज़ोर से कुछ ऐसे पुकारा,
कि मन उमड़ ही पड़ा।
चाहा कि आज
मोटी छाल से ढँके
इसके तने से लिपट कर
कुछ मन की बातें करलूँ,
कुछ अपनी कह लूँ,
कुछ उसकी
वो अनकही कहानियाँ सुन लूँ,
जिन्हें अपने भीतर समेटे
वह न जाने कब से
किसी अपने के आने की,
उससे बतियाने की
प्रतीक्षा कर रहा है।
मैं दौड़कर उससे लिपट गयी
कि यकायक लहरा उठा
अमलतास।
उसकी पत्तियाँ चमक उठीं,
उसका तना जैसे कुछ
नरम हो आया
और उसके रोम-रोम से
नेह की सौगात-से
झरने लगे अमलतास
झर-झर-झर-झर
और मैं
उनकी गंध में डूबती-उतराती
कहीं दूर
किसी स्वप्नलोक में
डूबती चली गयी।